भारत के अधिकांश शहर आज भी बाहर से आने वाले श्रमिकों की बढ़ती संख्या के कारण भारी दबाव में हैं। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें, तो उनमें दावा किया गया है कि तय परियोजनाओं में से करीब 73 फीसदी पूरी हो चुकी हैं। लेकिन एक गैर-सरकारी संस्था सेंटर फॉर फाइनेंशियल अकाउंटेबिलिटी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि परियोजनाएं देर से चल रही हैं। इनके बीच कुछ शहरों का रिकॉर्ड तो अच्छा है, लेकिन अन्य शहरों का प्रदर्शन खराब रहा है। यह विषमता की झलक इन परियोजनाओं के लिए दिए गए धन के उपयोग में भी देखी जा सकती है। यहां ये बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि आरंभ में स्मार्ट सिटी मिशन को 2020 तक पूरा कर लेने की उम्मीद जताई गई थी।
ये बात सही है कि 2020 से कोरोना महामारी का कहर टूट पड़ा। इसे देखते हुए परियोजना को पूरा करने का लक्ष्य 2023 तक बढ़ा दिया गया। अब कई शहरों में इस समयसीमा को एक बार फिर से बढ़ाकर इसे जून 2024 तक खिसका दिया है। इस बीच मुंबई सहित कई शहरों ने राजनीतिक असहमति के कारण परियोजना से बाहर निकलने का फैसला भी कर लिया। बेशक परियोजना का मकसद अच्छा था। भारतीय शहर एक तरह की अराजकता के शिकार हैं, जिन्हें नियोजित करने की बेहद जरूरत है। शहरों के बुनियादी ढांचे को जलवायु के अनुकूल और टिकाऊ बनाना, किफायती आवास मुहैया कराना, पर्याप्त बिजली-पानी और प्रभावी कचरा प्रबंधन जैसी सुविधाएं प्रदान करना- ऐसे लक्ष्य हैं, जिन्हें जल्द से जल्द पूरा किया जाना चाहिए। मगर असल सवाल अमल का है, जिसमें बात कहीं पिछड़ गई है।